देश में जातीय उग्रवाद का बढ़ता संकट राजनीतिक स्वार्थ और सामाजिक विघटन के बीच फंसा भारत

लेखिका: अंजलि प्रिया, वरिष्ठ पत्रकार
देश की वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक स्थिति चिंताजनक मोड़ पर पहुंच गई है। जहां एक ओर धार्मिक कट्टरता अपना प्रभाव दिखा रही है, वहीं दूसरी ओर अब जातीय संघर्ष भी तेजी से उभर कर सामने आ रहा है। भारत की राजनीति इस समय विकास, रोजगार और महंगाई जैसे असल मुद्दों से भटककर जाति और धर्म के दलदल में फंसी हुई नजर आती है। अंजलि प्रिया, वरिष्ठ पत्रकार, इस लेख के माध्यम से यह स्पष्ट करती हैं कि इस संकट के लिए सिर्फ नेता जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि समाज में फैली संकीर्ण सोच भी बराबर की भागीदार है।
इतिहास के पन्नों से झांकता जातिवाद
भारत का जातीय ढांचा हजारों वर्षों पुराना है। ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ और शूद्र जैसी जातियों में बंटे समाज ने एक समय में दलितों को शिक्षा, सम्मान और समानता से वंचित रखा। ब्राह्मणों ने खुद को सर्वोच्च मानते हुए शूद्रों को हीन समझा और उनके साथ छुआछूत जैसी कुरीतियों को बढ़ावा दिया। हालांकि, समय के साथ कई समाज सुधारकों ने इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई।
ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, राजा राम मोहन राय और स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे व्यक्तित्वों ने दलितों, महिलाओं और वंचित वर्गों को शिक्षा और सम्मान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आज़ादी के 75 साल बाद, फिर से जातीय टकराव
अंजलि प्रिया लिखती हैं कि आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी भारत में जातीय टकराव अपने चरम पर है। इसका प्रमुख कारण है हर जाति में उभर रहे चरमपंथी तत्व और प्रतिशोध की भावना। कुछ ब्राह्मण आज भी खुद को धार्मिक ठेकेदार मानते हैं तो कुछ दलित समूह बदले की भावना में सक्रिय हो गए हैं। यह टकराव सिर्फ नफरत और हिंसा को जन्म देता है, न कि किसी समाधान को।

डिजिटल युग में नफरत का कारोबार
सोशल मीडिया जैसे प्लेटफॉर्म आज चरमपंथियों के लिए युद्धभूमि बन गए हैं। जातीय और धार्मिक नफरत को फैलाने का यह माध्यम अब नेताओं के लिए राजनीति और मीडिया के लिए टीआरपी का जरिया बन चुका है। इससे समाज में न केवल तनाव बढ़ रहा है, बल्कि असली मुद्दे — बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा — भी हाशिए पर चले गए हैं।
क्या जातीय उग्रता से होगा विकास?
समाज के पढ़े-लिखे और जिम्मेदार वर्ग की प्राथमिकताएं आज भी शिक्षा, रोजगार और समानता हैं, लेकिन चरमपंथी सोच विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा बन चुकी है। अंजलि प्रिया का कहना है कि चाहे कोई भी जाति हो, वह अकेले देश का विकास नहीं कर सकती। जातिगत घृणा और धार्मिक कट्टरता अगर हद से ज्यादा बढ़ जाएं, तो वो किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे खतरनाक साबित हो सकती हैं।
बदलाव की ज़रूरत सोच में है
हमें समझने की आवश्यकता है कि हम अब हजारों साल पहले के नहीं बल्कि आज की आधुनिक और वैज्ञानिक सोच वाले युग में जी रहे हैं। शिक्षा, समानता और मानवता ही देश को आगे ले जा सकती है, न कि जाति और धर्म की दीवारें। समय आ गया है कि हम पुरानी मानसिकता को पीछे छोड़कर, एक समावेशी और प्रगतिशील भारत की ओर कदम बढ़ाएं।
Leave a Comment